एक पहाड़ी राज्य, जिसकी आत्मा देवभूमि की मिट्टी में है और भविष्य उन सपनों में जो मेरे बच्चों की आंखों में चमकते हैं.
15 अप्रैल 1948 को जब मेरी 30 पहाड़ी रियासतों को एक डोर में पिरोया गया, तब न मेरे पास आर्थिक शक्ति थी, न आधारभूत ढांचा. सिर्फ मेरे पास था- मेरे लोगों का हौसला, हिमालय सा अडिग.
राजनीतिक पहचान से विकास की उड़ान तक
25 जनवरी 1971 को जब भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुझे देश का 18वां पूर्ण राज्य घोषित किया, तब मेरे लिए यह एक पहचान से अधिक-आत्मसम्मान का दिन था. उस दिन मेरे वजूद को एक स्वर मिला, एक संकल्प मिला.

सड़कों से शुरू हुआ परिवर्तन का सफर
1948 को मेरी गोद में कुल 228 किलोमीटर सड़कें थीं. गांव, कस्बों से कटे हुए थे. विकास पहाड़ियों के पार रुक जाता था. 2025 तक यह लंबाई 33,000 किलोमीटर को पार कर चुकी है. ₹4,317 करोड़ सड़कों और पुलों पर 2024-25 में खर्च हो रहे हैं, जिससे अब गांव, शिक्षा, स्वास्थ्य और बाजार से जुड़ पा रहे हैं, फिर भी हर साल भूस्खलन, बर्फबारी और भौगोलिक दुर्गमता मेरी राह में बाधा बनकर आते हैं. संपर्क तो हुआ पर सुगमता अब भी एक सपना है कई दुर्गम क्षेत्रों के लिए.
शिक्षा- अंधकार से उजाले की ओर
1948 में मेरी साक्षरता दर सिर्फ 6.7% थी. 1948 में 331 शिक्षण संस्थान थे अब 2025 में गर्व से कह सकता हूं कि मैं 83% से अधिक साक्षरता के साथ देश के अग्रणी राज्यों में हूं. 2025 में 15,000 से अधिक विद्यालय व महाविद्यालय ₹9,560 करोड़ का शिक्षा बजट (2024-25) फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षक और डिजिटल संसाधनों की कमी अब भी चुनौती बनी हुई है. तकनीक तो आई पर पहुंच अब भी अधूरी है.
स्वास्थ्य सेवाएं- पहाड़ों में जीवन का सहारा
पहले जहां एक डॉक्टर कई गांवों के लिए था, अब हर जिले में मल्टीस्पेशियलिटी हॉस्पिटल्स हैं. ₹3,415 करोड़ का स्वास्थ्य बजट, मोबाइल हेल्थ यूनिट्स, हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर और टेलीमेडिसिन से पहाड़ी जीवन सरल बना है, मगर दुर्गम क्षेत्रों में डॉक्टरों की कमी, मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की कमी और बुज़ुर्गों के लिए सुविधाओं की कमी अब भी मेरे दिल को दुखाती है.
कृषि से बागवानी तक आर्थिक आत्मनिर्भरता की ओर
1951 में बागवानी 792 हेक्टेयर में सीमित थी, 2025 में यह आंकड़ा 2,20,706 हेक्टेयर तक पहुंच चुका है. सेब, कीवी, चेरी से लेकर औषधीय पौधों का निर्यात कर सालाना ₹4,000 करोड़ से अधिक की आय से हिमाचल को ‘फलों का राज्य’ बना दिया लेकिन जलवायु परिवर्तन, फलों की गुणवत्ता में गिरावट और बाजार में अस्थिरता अब किसानों के भविष्य को असुरक्षित बनाती है. समाधान है वैज्ञानिक शोध, जैविक खेती और बेहतर भंडारण व्यवस्था.
आर्थिक आत्मनिर्भरता- एक लंबी राह
मैं छोटा राज्य हूँ लेकिन मेरा सपना बड़ा है. 2024-25 में मेरा कुल बजट ₹58,444 करोड़ है, जिसमें से ₹7,000 करोड़ से अधिक टैक्स राजस्व, ₹1,000 करोड़ से अधिक हाइड्रो पावर से आय, ₹9,000 करोड़ से अधिक योजना व्यय पर मेरा कुल कर्ज ₹50,000 करोड़ से अधिक हो चुका है. केंद्र से सहायता कम हो रही है और ब्याज अदायगी हर साल भारी होती जा रही है. यह मेरा सबसे बड़ा बोझ है.
पर्यावरण मेरी आत्मा का सौंदर्य हैं जहां ‘ग्रीन स्टेट’ मिशन, सौर ऊर्जा, ई-वाहन नीति- मुझे एक हरित भविष्य की ओर ले जा रहे हैं. वहीं, ग्लेशियरों का पिघलना, वनों की अंधाधुंध कटाई, जलस्रोतों का क्षय, मुझे चिंता में डालते हैं. मेरा सौंदर्य तभी टिकेगा जब मेरा संतुलन बना रहेगा.
युवाओं और नारियों की शक्ति- मेरा भविष्य
मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना, इंदिरा गांधी नारी सम्मान योजना, स्वरोजगार योजना, मेरे युवाओं और बहनों को नई राह दे रही हैं. अब जरूरत है कि हर गांव में डिजिटल हब, हर घर में उद्यमशीलता और हर बेटी को सुरक्षा मिले.
77वीं वर्षगांठ- एक पड़ाव, एक पुनः संकल्प
15 अप्रैल 2025 केवल एक तारीख नहीं… यह मेरी आत्मा की पुकार है- “आओ फिर से हिमाचल को ऊंचाई दें, लेकिन जड़ों से जुड़े रहकर.”
चलो फिर से प्रण करें –
हर गांव को स्मार्ट बनाना है
हर युवा को हुनरमंद बनाना है
हर नारी को आत्मनिर्भर बनाना है
और हर नागरिक को पर्यावरण रक्षक बनाना है
मैं हिमाचल हूं…
वर्षों की ठंड, बर्फ, तूफ़ानों से जूझा हूं
पर हर बार उठा हूं और ऊंचा उठा हूं
मेरे सैनिकों ने सरहदों की रक्षा की,
मेरे किसानों ने धरती को सोना बनाया
मेरे युवाओं ने नवाचार से भविष्य रचा.
मैं भावनाओं से बना हूं
मैं आकांक्षाओं से ढला हूं
और मैं हिमालय की तरह अडिग हूं
- लेखक ✍🏻 डाॅ. पंकज चांडक
सहायक आचार्य, इतिहास
डाॅ. वाई.एस. परमार राजकीय स्नातकोत्तर, नाहन