आस्था का केंद्र : नाहन का कालीस्थान मंदिर, जहां बलि की प्रथा का हुआ था अंत, जानें 400 साल का इतिहास

यह मंदिर न केवल नाहन के लोगों के लिए, बल्कि दूर-दूर से आने वाले भक्तों के लिए भी एक पवित्र स्थान है, जहां उनकी आस्था और इतिहास का संगम होता है। यह मंदिर सदियों से चली आ रही धार्मिक परंपराओं और आध्यात्मिक विश्वासों को जीवंत बनाए हुए हैं।

0

हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के मुख्यालय नाहन शहर का प्राचीन कालीस्थान मंदिर केवल एक पूजा स्थल नहीं, बल्कि आध्यात्मिक आस्था, समृद्ध इतिहास और अटूट विश्वास का एक जीवंत प्रतीक भी है।

यह मंदिर उन भक्तों के लिए एक विशेष स्थान रखता है जो मां दुर्गा के रौद्र रूप और महाकाली की शक्ति में विश्वास रखते हैं। दश महाविद्याओं में से एक महाकाली को दुष्ट शक्तियों का नाश करने वाली और अपने भक्तों को सभी कष्टों से मुक्ति दिलाने वाली देवी के रूप में पूजा जाता है।

इस दिव्य मंदिर का निर्माण संवत 1686 यानी सन 1629 में महाराज विजय प्रकाश की कुमाऊं वाली रानी ने करवाया था, जो कुमाऊं से ही देवी महाकाली की प्रतिमा लाई थीं। इस मंदिर की जड़ें एक रानी की श्रद्धा और उनकी जन्मभूमि की आध्यात्मिक विरासत से जुड़ी हैं। समय के साथ इस मंदिर का कई बार जीर्णोद्धार हुआ, जिससे आज यह अपनी भव्यता और सुंदरता से नाहन शहर की विशेष पहचान है।

अद्वितीय पूजा पद्धतियां
मंदिर के इतिहास में एक दिलचस्प बदलाव बलि प्रथा से जुड़ा है। बताया जाता है कि शुरुआत में यहां अश्विन नवरात्रि में मनुष्य बलि दी जाती थी, लेकिन महाराजा को यह प्रथा पसंद नहीं थी। उन्होंने तत्कालीन महंत महात्मा भड़ग नाथ से इस बारे बात की और महात्मा ने अपनी तपस्या से माता रानी को पशु बलि पर राजी कर लिया। फिर यहां भैंसे की बलि दी जाने लगी। महाराज ने यहां उन्हें महंत के पद पर विराजमान किया।

महात्मा भड़ग नाथ के बाद यहां महात्मा आमनाथ महंत बने, जो एक चमत्कारी महात्मा थे। उन्होंने अपने तपोबल से एक रात में ही नाहन के आसपास में नौ लाख आम के फलदार पेड़ पैदा कर दिए थे, जिनका केंद्र नौणी का बाग क्षेत्र था। उन्होंने मंदिर क्षेत्र में जीवित ही समाधि ली थी।

बाद में योगी मुक्ति नाथ ने अपने तपोबल से माता को बकरी की बलि पर मना लिया और वर्षों बाद इस प्रथा को भी बंद किया गया। यहां बकरी भी जीवित छोड़ी जाने लगी। वर्तमान में माता रानी पानी वाले नारियल और हलवे का प्रसाद ही ग्रहण करती हैं।

यहां के महात्माओं में तोपनाथ, ज्वाला नाथ, वीर नाथ आदि महात्मा और श्री जगन्नाथ के महंत भी रहे। कुछ समय यहां पंडित बालकिशन ने पूजा अर्चना का कार्य किया। बाद में उनके वंशज भी यहां पूजा पाठ कार्य करते रहे हैं।

मंदिर परिसर और धार्मिक अनुष्ठान
कालीस्थान मंदिर परिसर में न केवल महाकाली बल्कि अन्य देवी-देवताओं का भी वास है। यहां नर्मदेश्वर शिवलिंग वाला एक शिव मंदिर, माता बाला सुंदरी का स्थान, भैंरों बाबा और श्री गोगा जाहरवीर जी की माड़ी भी स्थापित है। इन सभी देवी-देवताओं की उपस्थिति इस स्थान को एक सप्तशक्ति पीठ के समान बनाती है, जहां विभिन्न शक्तियों का संगम होता है।

मंदिर के साथ-साथ हनुमान चबूतरा और ब्रह्मलीन महात्माओं की समाधियां भी मौजूद हैं, जो इस स्थान के ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व को और बढ़ाती हैं। नवरात्रि के दौरान यहां विशेष आयोजन होते हैं, जिसमें जय माता दी के जयकारे से पूरा वातावरण गूंज उठता है।

इन परंपराओं का निर्वहन
महाराजा फतेह प्रकाश के समय से चली आ रही एक अनोखी परंपरा आज भी निभाई जाती है। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा दिए गए खंडे को नवरात्रि के पहले दिन राजमहल से यहां लाया जाता है और नौ दिनों तक उसकी पूजा की जाती है।

नवमी को हवन के बाद राजपुरोहित महाराज को यह खंडा वापस देते थे, जिसे विशाल जुलूस की शक्ल में महाराज और राजपुरोहित राजमहल लाते थे। दोनों ओर असंख्य भीड़ महाराजा का जय-जयकार करती थी। इस परंपरा को वर्तमान में पूर्व विधायक कंवर अजय बहादुर सिंह निभा रहे हैं, जो इस मंदिर के साथ जुड़े ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों की गहराई को दर्शाता है।

इस मंदिर के नवीनीकरण का श्रेय ब्रह्मलीन महंत कृष्णनाथ को जाता है, जो काफी समय तक यहां महंत पद पर आसीन रहे। वर्तमान में इस मंदिर के व्यवस्था संचालन के लिए महंत किशोरी नाथ जी की देखरेख में गठित समिति द्वारा किया जाता है। विशेष अवसरों पर यहां जागरण और भंडारे का आयोजन किया जाता है, जहां भक्तगण एक साथ मिलकर देवी की महिमा का गुणगान करते हैं।

संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना
विक्रमी संवत् 2002 यानी सन 1946 को अश्विन शुक्ल दशमी को महंत भीष्म नाथ अस्थल अबोहर से लाकर दयालु नाथ को यहां महंत की गद्दी पर बैठाया गया। उन्होंने ही यहां गोरखनाथ संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की, जिसका संचालन देहरादून से गुरू रामराय झंडा जी द्वारा किया जाता था।

महाराजा फतेह प्रकाश के समय में इसका जीर्णोद्धार कार्य करवाया गया। उन्होंने यहां हनुमान चबूतरा बनवाया। जिस पर हर वर्ष अश्विन शुक्ल पक्ष नवमी को दरबार लगाया जाता था, जिसमें महाराजा राजगुरू को भेंट देता था और राजगुरू महाराजा व दरबारियों को नादो देता था।

इस मंदिर के नवीनीकरण का श्रेय ब्रह्मलीन मंहत कृष्णनाथ को भी जाता है, जो लंबे समय तक यहां महंत के पद पर आसीन रहे। वर्तमान में इस मंदिर की व्यवस्था संचालन के लिए महंत किशोरी नाथ जी के सानिध्य में समिति गठित की गई है, जिसमें कई गणमान्य लोग शामिल हैं। विशेष पर्वों पर यहां जागरण और भंडारों का आयोजन होता है।

    सुभाष चंद्र शर्मा | गांव खदरी, बिक्रमबाग, नाहन

यह मंदिर न केवल नाहन के लोगों के लिए, बल्कि दूर-दूर से आने वाले भक्तों के लिए भी एक पवित्र स्थान है, जहां उनकी आस्था और इतिहास का संगम होता है। यह मंदिर सदियों से चली आ रही धार्मिक परंपराओं और आध्यात्मिक विश्वासों को जीवंत बनाए हुए हैं।