नवरात्रि विशेष : नमक की बोरी में पधारीं, त्रिलोकपुर में विराजीं, तीन देवियों से मिलकर बना सिद्ध पीठ

मां बाला सुंदरी 1573 ई. में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबंद से त्रिलोकपुर आई थीं। यह एक चमत्कारिक घटना थी, जहां वह एक व्यापारी लाला रामदास की नमक की बोरी में प्रकट हुईं।

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हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में स्थित त्रिलोकपुर का प्रसिद्ध सिद्ध पीठ महामाया बाला सुंदरी मंदिर पूरे उत्तर भारत में भक्तों की आस्था का एक प्रमुख केंद्र है। यहां मां बाला सुंदरी सच्चे मन से आने वाले भक्तों की हर मनोकामना पूरी करती हैं। त्रिलोकपुर का नाम भी तीन शक्तियों महामाया श्री बालासुंदरी, मां ललिता देवी और त्रिपुर भैरवी के नाम पर पड़ा।

मां बालासुंदरी न केवल सिरमौर जिला बल्कि साथ लगते हरियाणा, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड आदि विभिन्न क्षेत्रों की भी अधिष्ठात्री देवी हैं। त्रिलोकपुर में वर्ष में 2 बार मेला लगता है, जो श्रद्धालुओं को अपनी और आकर्षित करता है। चैत्र नवरात्र में लगने वाले मेले को बड़ा मेला और आश्विन माह में लगने वाले मेले को छोटा मेला कहा जाता है। यूं तो प्रतिदिन त्रिलोकपुर में माता के दर्शनों के लिए भक्तों का तांता लगता है, लेकिन वर्ष में नवरात्रों के दौरान यहां होने वाले नवरात्र मेलों में लाखों की तादाद में श्रद्धालु पहुंचते हैं।

ये है इतिहास…

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जनश्रुतियों के अनुसार मां बाला सुंदरी 1573 ई. में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबंद से त्रिलोकपुर आई थीं। यह एक चमत्कारिक घटना थी, जहां वह एक व्यापारी लाला रामदास की नमक की बोरी में प्रकट हुईं। लाला रामदास नमक का व्यापार करते थे और उन्होंने देवबंद से जो नमक खरीदा था, वह अपनी दुकान में बेचने के बावजूद खत्म नहीं हो रहा था। इस चमत्कार से अचंभित होकर लाला रामदास ने पीपल के पेड़ के नीचे पूजा-अर्चना शुरू कर दी।

एक रात मां बाला सुंदरी ने लाला रामदास को सपने में दर्शन दिए और बताया कि वह पीपल के पेड़ के नीचे एक पिंडी के रूप में स्थापित हो गई हैं। उन्होंने लाला रामदास को उस स्थान पर एक मंदिर बनवाने का आदेश दिया। हालांकि, लाला रामदास के पास मंदिर निर्माण के लिए पर्याप्त धन नहीं था।

तब माता ने अपने भक्त की पुकार सुनी और सिरमौर के तत्कालीन राजा प्रदीप प्रकाश को स्वप्न में दर्शन दिए और उन्हें मंदिर बनाने का आदेश दिया। राजा ने जयपुर से कारीगरों को बुलाकर 1630 ई. में मंदिर का निर्माण पूरा करवाया। बाद में 1823 में राजा फतेह प्रकाश और 1851 में राजा रघुबीर प्रकाश ने इसका जीर्णोंद्धार करवाया।

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एक अन्य किंवदंती
एक और किंवदंती के अनुसार लाला रामदास अपने घर के सामने स्थित पीपल के पेड़ की पूजा करते थे। एक बार आए भयंकर तूफान में वह पेड़ उखड़ गया और उसके स्थान पर एक पिंडी प्रकट हुई। लाला रामदास ने उस पिंडी को अपने घर लाकर उसकी पूजा शुरू कर दी। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर मां ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और मंदिर बनाने के लिए कहा। लाला रामदास ने राजा को यह बात बताई, जिसके बाद त्रिलोकपुर में मंदिर का निर्माण हुआ।

आज भी परंपरा
लाला रामदास के वंशज आज भी मंदिर से जुड़ी सभी परंपराओं को निभा रहे हैं। वर्तमान में उनके वंशज राजेश गुप्ता (बिट्टू भक्त) मंदिर के सभी मुख्य कार्यों की जिम्मेदारी संभालते हैं। वह बताते हैं कि सुबह और शाम की आरती, माता को भोग लगाना और उनके शयन तक के सभी कार्य उनके परिवार द्वारा ही किए जाते हैं। मंदिर की चाबियां भी उन्हीं के पास रहती हैं। यह परंपरा जब से मां बाला सुंदरी यहां विराजमान हुई हैं, तभी से चली आ रही है और आज भी पूरी श्रद्धा के साथ कायम है।

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