अब जमीन के अंदर नहीं बाहर उगेगा आलू, लागत बचेगी, हल की जरूरत न ज्यादा पानी की, शोध सफल, जानें ये नई तकनीक

दरअसल, हिमाचल में पहली बार इस तकनीक का इस्तेमाल हुआ है. कुफरी नीलकंठ और कुफरी संगम किस्म के आलू पर किया गया कृषि वैज्ञानिकों का ये शोध पूरी तरह सफल रहा है. इसे जिला सिरमौर के कृषि विज्ञान केंद्र धौलाकुआं में ही अंजाम दिया गया.

0

नाहन|
हिमाचल प्रदेश में आलू की पैदावार में एक नई तकनीक ईजाद हुई है. सब्जियों के राजा कहे जाने वाले आलू को अब जमीन के नीचे उगाने की जरूरत नहीं होगी. यानी इस फसल के लिए मिट्टी की भी आवश्यकता नहीं. बड़ी बात ये है कि इसके लिए न तो खेत को हल से जोतने की जरूरत है और न ही ज्यादा सिंचाई की. सिर्फ 3 माह के भीतर ये फसल तैयार हो जाएगी.

दरअसल, हिमाचल में पहली बार इस तकनीक का इस्तेमाल हुआ है. कुफरी नीलकंठ और कुफरी संगम किस्म के आलू पर किया गया कृषि वैज्ञानिकों का ये शोध पूरी तरह सफल रहा है. इसे जिला सिरमौर के कृषि विज्ञान केंद्र धौलाकुआं में ही अंजाम दिया गया. जहां आधा हैक्टेयर भूमि पर इस किस्म के आलू का उत्पादन हुआ है। बड़ी बात ये भी है कि ये पूरी तरह से प्राकृतिक तौर से उगाया गया है. इस तकनीक से उत्पादन में भी कोई कमी नहीं आई है.

सबसे अहम बात ये है कि इस तकनीक में पराली का इस्तेमाल किया गया. पराली के नीचे और जमीन के ऊपर ही आलू की पैदावार हुई है. वैज्ञानिकों की मानें तो इस तकनीक को अपनाकर न केवल लागत मूल्य में कमी आएगी, बल्कि किसानों का समय, मजदूरों की दिहाड़ी व मशीन आदि का खर्च भी बच जाएगा.

जमीन के ऊपर की आलू की बिजाई
कृषि विज्ञान केंद्र धौलाकुआं में वैज्ञानिकों ने अपने फसल प्रदर्शन फार्म में आलू की बिजाई के लिए न तो खेत की जुताई की और न ही किसी भी तरह से मिट्टी को ढीला किया. वैज्ञानिकों ने धान की कटाई के तुरंत बाद नमीयुक्त खेत में आलू को मिट्टी (जमीन) के ऊपर रखा. आलू रखने के बाद उसे पौना फीट तक पराली से ढका गया. इसके बाद घनजीवामृत का इस्तेमाल किया. जीवामृत का ऊपर से स्प्रे किया. इस तकनीक में किसी भी प्रकार की रासायनिक खादों का इस्तेमाल नहीं किया गया. इसकी मल्चिंग की गई. इससे खेती में खरपतवार की समस्या भी खत्म हो गई.

ग्रेडिंग करना आसान
इस तकनीक से आलू की ग्रेडिंग करना भी आसान है. चूंकि, आलू की शत प्रतिशत फसल जमीन के बाहर ही होती है. लिहाजा फसल को इकट्ठा करते वक्त इसकी ग्रेडिंग करना काफी आसान है. इस तकनीक में कोई भी आलू जमीन के नीचे नहीं जाएगा. इससे आलू के कटने-फटने और जमीन के नीचे रहने का भी कोई झंझट नहीं है. जैसी समस्या इस फसल की आम खेती में किसानों को पेश आती है. आलू निकालने के लिए खोदाई की भी जरूरत नहीं है.

सिर्फ 3 बार की सिंचाई
इस तकनीक में सिर्फ 3 बार सिंचाई का प्रयोग किया गया। अमूमन ये देखा गया है कि सामान्य तौर पर आलू की फसल तैयार करते वक्त 10 से 15 दिन बाद सिंचाई की जरूरत पड़ती है. जब तक फसल तैयार नहीं हो जाती, तब तक इसकी 8-10 बार सिंचाई हो जाती है लेकिन इस खेती में पानी का खर्च भी बच गया. यदि बीच में बारिश हो जाए तो 3 बार भी इस खेती में पानी जरूरत नहीं पड़ेगी.

नई तकनीक में पराली का प्रयोग रहा अहम
वैज्ञानिकों ने इस तकनीक में आलू उत्पादन में पराली का ही इस्तेमाल किया. पराली जलाने से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है. इससे न केवल वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, बल्कि ग्रीन हाउस गैसों का भी उत्सर्जन हो रहा है. पराली इस समय पर्यावरण और मानव जीवन के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी है लेकिन यहां कृषि वैज्ञानिकों ने इसका इस्तेमाल आलू उत्पादन में किया और नतीजा ये निकला कि पराली को वैज्ञानिकों ने खेत में ही डिकंपोज कर दिया. इससे वैज्ञानिकों ने कार्बन न्यूट्रल फार्मिंग अपनाने का भी बड़ा संदेश दिया है.

हर किस्म का आलू होगा तैयार

डॉ. सौरव शर्मा

इस तकनीक से हर किस्म का आलू तैयार होगा. इसमें आलू के उत्पादन में किसानों को खेत में मेढ़ और नाली बनाने की जरूरत नहीं. आलू पर मिट्टी नहीं चढ़ेगी. शून्य जुताई तकनीक की खासियत है. खरपतवारनाशी रसायन स्प्रे नहीं करना होगा, क्योंकि धान की पराली से मल्चिंग के करण खरपतवार नहीं उग पाएंगे. इस तकनीक में लेबर भी कम, किसी बड़ी मशीन या ट्रैक्टर की भी आवश्यकता नहीं है. आलू निकालने के लिए खेत खोदने की जरूरत नहीं होगी. नई तकनीक में आलू के जमीन के भीतर रहने की भी कोई समस्या नहीं है.
– डा. सौरव शर्मा, एग्रोनॉमी, कृषि अनुसंधान उपकेंद्र, अकरोट, ऊना

आलू बिजाई की नई तकनीक रही सफल

डॉ. पंकज मित्तल

प्राकृतिक तौर से उगाई आलू की ये किस्में स्वास्थ्य के लिए काफी लाभदायक है. कुफरी नीलकंठ किस्म के आलू में एंटीऑक्सीडेंट और कैरोटिन एंथोसाइनिन जैसे तत्व पाए जाते हैं. ये तत्व सेहत के लिए फायदेमंद होते हैं। इस आलू में रोग प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा होती है. दिल की बीमारी और कुछ तरह के कैंसर से ये आलू काफी कारगर है. शूगर में भी ये फायदेमंद है. यहां किया गया ये शोध सफल रहा है.
– डा. पंकज मित्तल, प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रभारी कृषि विज्ञान केंद्र धौलाकुआं

साइंटिफिक तरीके से हो रही रिसर्च

डॉ. अजय दीप बिंद्रा

सरकार और कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर किसानों की आय और फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए सांइटिफिक तरीके से रिसर्च कर रहा है, ताकि लागत भी कम आए. किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने के लिए सरकार प्रयासरत है. फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ साथ लोगों की सेहत का भी खास ख्याल रखा जा रहा है. आलू पर किया गया शोध किसानों के लिए लाभदायक साबित होगा. कई और भी शोध कृषि वैज्ञानिक लगातार कर रहे हैं, जो किसानों के लिए फायदेमंद होंगे.
– डा. अजय दीप बिंद्रा, सह निदेशक, प्रसार, कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर