घर की प्रतिकूल परिस्थितियां बनीं दीवार, एक सपना जो अधूरा ही रह गया

घर की आर्थिक तंगी और प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते उन्हें बीए द्वितीय वर्ष के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इस एक फैसले ने उसके इंटरनेशनल बॉक्सर बनने के सपने को हमेशा के लिए अधूरा कर दिया, जिसका मलाल उन्हें जीवन भर रहेगा।

0

राजगढ़ : मुक्केबाजी के रिंग में जिसने बड़े-बड़ों को धूल चटाई, वो जीवन की मुश्किलों के सामने हार गई। ये कहानी है निशा देवी की, जिसने अपने मुक्कों से राष्ट्रीय स्तर पर धूम मचा दी, लेकिन घर की गरीबी ने उसके सपनों को चकनाचूर कर दिया।

राजगढ़ के छोटे से गांव शरेउत देवठी मंझगांव से आने वाली निशा का बचपन खेल के मैदान में गुजरा। वॉलीबॉल, खो-खो, बैडमिंटन… हर खेल में माहिर, लेकिन जब उसने मुक्केबाजी ग्लव्स पहने, तो मानो उसकी किस्मत ही बदल गई। जिला और राज्य स्तर पर गोल्ड, सिल्वर और कांस्य पदक की झड़ी लगा दी।

एक साधारण परिवार में जन्मी निशा ने साबित कर दिया कि प्रतिभा किसी पहचान की मोहताज नहीं होती। शुरुआती शिक्षा शरेउत में और 12वीं की पढ़ाई राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला देवठी मंझगांव से पूरी की।

सफलता का पंच और टूटता सपना
निशा ने 10वीं कक्षा में पढ़ते हुए धर्मशाला में हुई राज्य स्तरीय मुक्केबाजी प्रतियोगिता में तीसरा स्थान हासिल किया। साल 2015 में मंडी के करसोग में आयोजित राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में उन्होंने शानदार प्रदर्शन करते हुए गोल्ड मेडल जीता और राष्ट्रीय स्तर के लिए चुनी गईं।

अगले साल 2016 में उन्होंने मध्य प्रदेश के ग्वालियर में हुई राष्ट्रीय प्रतियोगिता में 62 किलोग्राम भार वर्ग में कांस्य पदक जीतकर प्रदेश का गौरव बढ़ाया।

12वीं के बाद निशा ने चंडीगढ़ के गुरु गोविंद सिंह महिला कॉलेज में दाखिला लिया और वहां भी अपना हुनर दिखाया। इंटर-कॉलेज और इंटर-यूनिवर्सिटी प्रतियोगिताओं में 66 किलोग्राम भार वर्ग में उन्होंने कई पुरस्कार और मेडल जीते।

उनका सपना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व करने का था, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।

निशा ने बताया कि घर की आर्थिक तंगी और प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते उन्हें बीए द्वितीय वर्ष के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इस एक फैसले ने उसके इंटरनेशनल बॉक्सर बनने के सपने को हमेशा के लिए अधूरा कर दिया, जिसका मलाल उन्हें जीवन भर रहेगा।

निशा की कहानी उन लाखों खिलाड़ियों की दास्तां बयां करती है, जिनकी प्रतिभा गरीबी की बेड़ियों में जकड़कर रह जाती है।