दिल्ली के ‘प्रदूषण गलियारे’ की चपेट में देवभूमि! क्या हिमाचल बचा पाएगा अपनी पर्यावरणीय विरासत?

स्वास्थ्य के नजरिए से स्थिति और भी भयावह होती जा रही है। हिमाचल प्रदेश जो कभी अपनी सेहतमंद जलवायु के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध था, अब यहां के निवासियों में सांस की बीमारियों में निरंतर बढ़ोतरी देखी जा रही है। स्थानीय अस्पतालों में अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और फेफड़ों के संक्रमण के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।

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पिछले कुछ दशकों से दिल्ली-एनसीआर के मैदानी इलाकों में वायु प्रदूषण एक स्थायी संकट बन चुका है, लेकिन अब यह समस्या केवल कंक्रीट के जंगलों और शहरी सीमा तक सीमित नहीं रही है। भौगोलिक सीमाओं को पार करते हुए दिल्ली की जहरीली हवा अब हिमालय की ऊंचाइयों तक पहुंच रही है, जिससे हिमाचल प्रदेश जैसा शांत और स्वच्छ राज्य एक गंभीर पर्यावरणीय मोड़ पर आ खड़ा हुआ है।

विशेष रूप से सर्दियों के महीनों में जब मैदानी इलाकों की हवा भारी होकर नीचे बैठ जाती है, तब एक विशिष्ट मौसम पैटर्न इन प्रदूषित कणों यानी PM2.5 और PM10 को पहाड़ियों की ओर धकेल देता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि शिमला, मनाली और धर्मशाला जैसे दुनिया भर में मशहूर पर्यटन स्थलों की हवा में अब वह ताजगी नहीं रही, जिसके लिए वे दशकों से जाने जाते थे। धुंध और स्मॉग की चादर न सिर्फ पहाड़ों की प्राकृतिक सुंदरता और विजिबिलिटी को धुंधला कर रही है, बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाने वाले पर्यटन उद्योग पर भी सीधा प्रहार कर रही है।

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स्वास्थ्य के नजरिए से स्थिति और भी भयावह होती जा रही है। हिमाचल प्रदेश जो कभी अपनी सेहतमंद जलवायु के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध था, अब यहां के निवासियों में सांस की बीमारियों में निरंतर बढ़ोतरी देखी जा रही है। स्थानीय अस्पतालों में अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और फेफड़ों के संक्रमण के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। विशेषज्ञों का स्पष्ट मानना है कि दिल्ली के औद्योगिक कचरे और वाहनों से होने वाले प्रदूषण के लंबे समय तक संपर्क में रहने के कारण अब पहाड़ों में भी दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ गया है, जिसमें बुजुर्ग और बच्चे सबसे ज्यादा संवेदनशील स्थिति में हैं।

इस प्रदूषण का प्रभाव केवल इंसानों के फेफड़ों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि हिमाचल का नाजुक इकोसिस्टम भी इसकी चपेट में है। हवा में मौजूद प्रदूषक कणों की एक महीन परत पौधों की पत्तियों पर जम रही है, जिससे उनकी फोटोसिंथेसिस यानी प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बाधित हो रही है। इसका सीधा असर जंगलों के स्वास्थ्य और कृषि उपज पर पड़ रहा है, जो राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार है। यह बदलता हुआ परिवेश क्षेत्र के मौसम पैटर्न को भी अस्थिर कर रहा है, जिससे बेमौसम बारिश और बर्फबारी के चक्र में बदलाव जैसे खतरे पैदा हो रहे हैं।

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हालांकि, इस गंभीर संकट के बीच हिमाचल प्रदेश के पास एक ‘ग्रीन मॉडल’ के रूप में उभरने का एक अनोखा अवसर भी है। दिल्ली की दम घोंटने वाली हवा ने केंद्र और राज्य सरकारों को पूरे उत्तर भारतीय क्षेत्र के लिए एक एकीकृत पर्यावरण नीति बनाने की दिशा में सोचने पर मजबूर किया है। यही दबाव अब इलेक्ट्रिक वाहनों, सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसे स्वच्छ विकल्पों में निवेश बढ़ाने की राह खोल रहा है।

हिमाचल प्रदेश अपने प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों का लाभ उठाकर खुद को एक ‘ग्रीन टेक्नोलॉजी हब’ के रूप में स्थापित कर सकता है। दिल्ली की घुटन से परेशान लोग अब ‘पहाड़ों से काम’ यानी वर्क फ्रॉम माउंटेन और ‘इको-टूरिज्म’ की तलाश में पहाड़ों की ओर रुख कर रहे हैं, जिससे राज्य के लिए आर्थिक समृद्धि के नए द्वार खुल सकते हैं।

अंततः यह समय हिमाचल प्रदेश के लिए एक गंभीर चेतावनी है कि वह दिल्ली द्वारा की गई विकास की गलतियों को दोहराने से बचे। हिमाचल को अपनी सुंदरता और पर्यावरण को बचाने के लिए केवल दिल्ली की सुधरती हवा के भरोसे नहीं बैठना चाहिए। राज्य को स्वयं सख्त कैरिंग कैपेसिटी नियम, वैज्ञानिक कचरा प्रबंधन और नियंत्रित शहरीकरण की नीतियों को सख्ती से लागू करना होगा।

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दिल्ली की समस्याओं का समाधान केवल पहाड़ों में जाकर बसना नहीं हो सकता, क्योंकि बिना सही प्रबंधन के यह केवल प्रदूषण को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित करने जैसा होगा। हिमाचल को विकास और पर्यावरण सुरक्षा के बीच वह कठिन संतुलन बनाना होगा जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मिसाल बन सके और देवभूमि की हवा हमेशा सांस लेने योग्य बनी रहे।